जीव मनुष्य का अंतिम सत्य

 अर्थी पर पड़े हुए शव पर कपड़ा बाँधा जा रहा है। गिरती हुई गरदन को सँभाला जा रहा है। पैरों को अच्छी तरह रस्सी बाँधी जा रही है, कहीं रास्ते में शव गिर न जाए। गर्दन के इर्दगिर्द भी रस्सी के चक्कर लगाये जा रहे हैं।

पूरा शरीर लपेटा जा रहा है। अर्थी बनाने वाला बोल रहा है: ‘तू उधर से खींच’ दूसरा बोलता है : ‘मैने खींचा है, तू गाँठ मार।’


लेकिन यह गाँठ भी कब तक रहेगी? रस्सियाँ भी कब तक रहेंगी? अभी जल जाएँगी और रस्सियों से बाँधा हुआ शव भी जलने को ही जा रहा है बाबा! धिक्कार है इस नश्वर जीवन को!

धिक्कार है इस नश्वर देह की ममता को! धिक्कार है इस शरीर के अभिमान को!

अर्थी को कसकर बाँधा जा रहा है। आज तक तुम्हारा नाम सेठ, साहब की लिस्ट (सूची) में था। अब वह शव की लिस्ट में आ गया।

लोग कहते हैं ‘शव को बाँधो जल्दी से।’ अब ऐसा नहीं कहेंगे कि ‘सेठ को, साहब को, मुनीम को, नौकर को, संत को, असंत को बाँधो…’ पर कहेंगे, ‘शव को बाँधो।’

हो गया हमारे पूरे जीवन की उपलब्धियों का अंत। आज तक हमने जो कमाया था वह हमारा न रहा।

आज तक हमने जो जाना था वह मृत्यु के एक झटके में छूट गया। हमारे इन्कम टेक्स (आयकर) के कागजातों को, हमारे प्रमोशन और रिटायरमेन्ट की बातों को, हमारी उपलब्धि और अनुपलब्धियों को सदा के लिए अलविदा होना पड़ा।

हाय रे मनुष्य! तेरा श्वास! हाय रे तेरी कल्पनाएँ! हाय रे तेरी नश्वरता! हाय रे मनुष्य; तेरी वासनाएँ!


आज तक इच्छाएँ कर रहा था कि इतना पाया है और इतना पाँऊगा, इतना जाना है और इतना जानूँगा, इतना को अपना बनाया है और इतनों को अपना बनाँऊगा, इतनों को सुधारा है, औरों को सुधारुँगा।


अरे! हम अपने को मौत से तो न बचा पाए! अपने को जन्म मरण से भी न बचा पाए! देखी तेरी ताकत! देखी तेरी कारीगरी बाबा !


हमारा शव बाँधा जा रहा है। हम अर्थी के साथ एक हो गये हैं। शमशान यात्रा की तैयारी हो रही है। लोग रो रहे हैं।

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